Dhirendra Singh Rathore (रायपालोत)

सिर कटे और धङ लङे रखा राठौङी शान!
“"व्रजदेशा चन्दन वना, मेरुपहाडा मोड़ ! गरुड़ खंगा लंका गढा, राजकुल राठौड़ !! बलहट बँका देवड़ा, करतब बँका गौड़ ! हाडा बँका गाढ़ में, रण बँका राठौड़ !!"”

Thursday, June 17, 2010

महाराणा प्रताप- II




Maharana Pratap

Born: May 9, 1540 in Kumbhalgarh, Rajasthan
Father's Name: Maharana Udai Singh II
Mother's Name: Rani Jeevant Kanwar
Died: January 29, 1597 in Chavand

Maharana Pratap was born on May 9th 1540 in Kumbhalgarh, Rajasthan. His father was Maharana Udai Singh II and his mother was Rani Jeevant Kanwar. Maharana Udai Singh II ruled the kingdom of Mewar, with his capital at Chittor. Maharana Pratap was the eldest of twenty-five sons and hence given the title of Crown Prince. He was destined to be the 54th ruler of Mewar, in the line of the Sisodiya Rajputs.


कुम्भलगढ़ दुर्ग



कुम्भलगढ़ राजस्थान ही नहीं भारत के सभी दुर्गों में विशिष्ठ स्थान रखता है उदयपुर से ७० कम दूर समुद्र तल से 1087 मीटर ऊँचा और 30 km व्यास में फैला यह दुर्ग मेवाड़ के यश्वी महाराणा कुम्भा की सुझबुझ व प्रतिभा का अनुपम स्मारक है | इस दुर्ग का निर्माण सम्राट अशोक के दुसरे पुत्र संप्रति के बनाये दुर्ग के अवशेषों पर १४४३ से शुरू होकर १५ वर्षों बाद १४५८ में पूरा हुआ था | दुर्ग का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर महाराणा कुम्भा ने सिक्के ढलवाये जिन पर दुर्ग और उसका नाम अंकित था | वास्तु शास्त्र के नियमानुसार बने इस दुर्ग में प्रवेश द्वार, प्राचीर,जलाशय, बहार जाने के लिए संकटकालीन द्वार, महल,मंदिर,आवासीय इमारते ,यज्ञ वेदी,स्तम्भ, छत्रियां आदि बने है |
दुर्ग कई घाटियों व पहाडियों को मिला कर बनाया गया है जिससे यह प्राकृतिक सुरक्षात्मक आधार पाकर अजेय रहा | इस दुर्ग में ऊँचे स्थानों पर महल,मंदिर व आवासीय इमारते बनायीं गई और समतल भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए किया गया वही ढलान वाले भागो का उपयोग जलाशयों के लिए कर इस दुर्ग को यथासंभव स्वाबलंबी बनाया गया | इस दुर्ग के भीतर एक और गढ़ है जिसे कटारगढ़ के नाम से जाना जाता है यह गढ़ सात विशाल द्वारों व सुद्रढ़ प्राचीरों से सुरक्षित है | इस गढ़ के शीर्ष भाग में बादल महल है व कुम्भा महल सबसे ऊपर है |
महाराणा प्रताप की जन्म स्थली कुम्भलगढ़ एक तरह से मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है | महाराणा कुम्भा से लेकर महाराणा राज सिंह के समय तक मेवाड़ पर हुए आक्रमणों के समय राजपरिवार इसी दुर्ग में रहा | यहीं पर प्रथ्विराज और महाराणा सांगा का बचपन बीता था | महाराणा उदय सिंह को भी पन्ना धाय ने इसी दुर्ग में छिपा कर पालन पोषण किया था | हल्दी घाटी के युद्ध में हार के बाद महाराणा प्रताप भी काफी समय तक इसी दुर्ग में रहे | इस दुर्ग के बनने के बाद ही इस पर आक्रमण शुरू हो गए लेकिन एक बार को छोड़ कर ये दुर्ग प्राय: अजेय ही रहा है लेकिन इस दुर्ग की कई दुखांत घटनाये भी है जिस महाराणा कुम्भा को कोई नहीं हरा सका वही परमवीर महाराणा कुम्भा इसी दुर्ग में अपने पुत्र उदय कर्ण द्वारा राज्य लिप्सा में मारे गए | कुल मिलाकर दुर्ग एतिहासिक विरासत की शान और शूरवीरों की तीर्थ स्थली रहा है माड गायक इस दुर्ग की प्रशंसा में अक्सर गीत गाते है :
कुम्भलगढ़ कटारगढ़ पाजिज अवलन फेर
संवली मत दे साजना,बसुंज,कुम्भल्मेर |

कुम्भलगढ़ दुर्ग का विडियो देखने के लिए यहाँ चटका लगायें |
‘‘माई ऐहडा-पूत जण, जेहा राण प्रताप।
अकबर सूतो ओझके, जाण सिराणे सांप ।।
भारतीय इतिहास में एक गौरवशाली रणक्षेत्र् हल्दीघाटी का नाम आते ही मन में वीरोचित भाव उमडने - घुमडने लगते हैं। अरावली पर्वतमाला की उपत्यकाओं से आच्छादित इस रणक्षेत्र् में स्थित 432 वर्ष पूर्व के विशाल वृक्ष और जल प्रवाह के नाले मूक साक्षी बने आज भी वद्यमान है। यह घाटी दूर कहीं से आ रही घोडों की टाप को रोमांचित करती आवाज और हाथियों की चिघांड से मानो गुंजायमान होने लगती है। रणभेरियों की आवाजें मन को मथने सी लगती है। उसी क्षण दूर से एक श्वेत रेखा दृष्टिगत होती है। समीप आती हुई यह रेखा चेतक का रूप ले लेती है। यही आसमानी रंग का घोडा राणा प्रताप को प्राणों की तरह प्रिय था। लगता था मानों यह अश्व अपने अद्वितीय सवार को लेकर हवा में उडा जा रहा था। दृढ प्रतिज्ञ एवं विलक्षण व्यक्तित्व के धनी महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को कुम्भलगढ में हुआ । पिता उदयसिंह की मृत्यु के उपरान्त राणा प्रताप का राज्याभिषेक 28 फरवरी, 1572 को गोगुन्दा में हुआ। विरासत में उन्हें मेवाड की प्रतिष्ठा और स्वाधीनता की रक्षा करने का भार ऐसे समय में मिला जबकि महत्वाकांक्षी सम्राट अकबर से शत्र्ुता के कारण समूचा मेवाड एक विचित्र् स्थिति में था। सम्राट अकबर ने मैत्रीपूर्ण संधि के लिए एक कूटनीतिक प्रस्ताव महाराणा को भेजा परन्तु वह शूरवीर इस प्रस्ताव से गुमराह होने की बजाय मुगलिया सेना को सबक सिखाने का निश्चय कर मेवाड की राजधानी गोगुन्दा से बदल कर कुम्भलगढ कर ली। प्रताप ने अपने दूरदराज के अंचलों से भारी संख्या में भीलों को एकत्र्ति किया। उनकी सेना में दो हजार पैदल, एक सौ हाथी, तीन हजार घुडसवार व एक सौ भाला सैनिक तथा दुन्दुभि व नगाडे बजाने वाले थे। अकबर की ओर से मानसिंह के नेतृत्व में पांच हजार सैनिकों की एक टुकडी व तीन हजार अन्य विश्वस्त व्यक्तियों ने मेवाड में बनास नदी के तट पर पडाव डाल दिया। 21 जून, 1576 को प्रातः दोनों ओर की सेनायें आमने-सामने आ पहुंची। प्रताप की सेना घाटी में तथा मुगलिया सेना बादशाह बाग के उबड - खाबड मैदान में डट गई। दोनों और से पहले पहल करने की ताक में खडी सेनाओं में मुगलों की सेना के कोई अस्सी जवानों की टुकडी ने घुसपैठ शुरू कर दी। प्रताप को यह कब सहन होने वाला था ? रणभेरी के बजते ही प्रताप ने हल्दीघाटी के संकरे दर्रे पर ही मुगलों को करारी हार का प्रथम सबक सिखा दिया और ऐसा जबरदस्त प्रहार किया कि शाही सेना में खलबलाहट मच गई। देखते ही देखते यह युद्ध रक्त तलाई के चौडे स्थल में होने लगा। तलवारों की झंकार से गुंजायमान यह रणक्षेत्र् दोनों ही सेनाओं के सैनिकों के रक्त से लाल हो उठा। इस विप्लवकारी नाजुक हालत में प्रताप ने अपने चेतक घोडे को ऐड लगा हाथी पर सवार मानसिंह पर भाले से तेज प्रहार किया परन्तु हाथी के दांत में बंधी तलवार से चेतक बुरी तरह घायल हो गया। हालात ने राणा को रणक्षेत्र् छोडने के लिए विवश कर दिया। झाला मान ने मुगलिया सेना से घिरे अपने स्वामी प्रताप को राष्ट्रहित में बचाने के लिए मेवाड का राजमुकुट अपने सिर पर रखकर प्रताप को युद्ध क्षेत्र् से सुरक्षित बाहर निकालने में तो सफल हो गया परन्तु स्वयं ने लडते हुए वीरगति प्राप्त कर ली। हल्दीघाटी के इस विश्व विख्यात युद्ध में प्रताप की सीधी जीत भले ही नहीं हुई हो परन्तु मातृभूमि के रक्षक, स्वतंत्र्ता सेनानी, महान त्यागी, स्वाभिमानी, पक्के इरादों के धनी के रूप में महाराणा प्रताप राजपुताने के गौरव और उसकी शानदार परम्पराओं के द्योतक बने हुए हैं। मुगलों के अभिमान के लिए सदैव सिरदर्द बने रहे प्रताप ने अपनी नई राजधानी चावण्ड बनाई जहां 19 जनवरी, 1597 को उनका देहान्त हो गया। चावण्ड में बनी उनकी समाधि पर पहुंचते ही यह दोहा स्मृति पटल पर उभरने लगता है ः- ‘‘माई ऐहडा-पूत जण, जेहा राण प्रताप। अकबर सूतो ओझके, जाण सिराणे सांप ।। कहना न होगा कि हल्दीघाटी का युद्ध एक विचार शक्ति बन कर जन मानस को आंदोलित करते हुए प्रकाश स्तम्भ के रूप में इस तरह उभरा कि विश्व की महानतम शक्तिशाली रही भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को स्वामी भक्त अश्व चेतक की समाधि तक आने के लिए विवश होना पडा। 21 जून, 1976 को राजस्थान सरकार द्वारा हल्दीघाटी स्वातन्त्र््य, संग्राम की स्मृति में आयोजित चतुःशती समारोह में इन्दिरा जी शिरकत करने हल्दीघाटी के ऐतिहासिक रणक्षेत्र् में पहुंची तो राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व. हरिदेव जोशी के नेतृत्व में वहां उपस्थित विशाल जन समूह ने तुमूल करतल ध्वनि से उनका स्वागत व अभिनन्दन किया। श्रीमती गांधी सीधी चेतक की समाधि पर पहुंची और अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने के बाद प्रतापी प्रताप के जिरह बख्तर के संग्रहालय का अवलोकन करने गई। उन्होंने इस रणक्षेत्र् की महत्ता को अक्षुण्य बनाये रखने के उपायों पर चर्चा करते हुए अपने अमूल्य सुझाव भी दिये। वे इस महान सपूत के अद्वितीय कृतित्व से अभिभूत हो एक नई स्फूर्ति, दिशा और संकल्प के साथ लौटी। हल्दीघाटी का विश्व विख्यात रणक्षेत्र् हमारी राष्ट्रीय धरोहर के रूप में जाना और माना जाता रहा है। परन्तु आजादी के बाद विकास की पिपासा शांत करने के लिए जिस तरह इस धरोहर का मौलिक स्वरूप ही बदल दिया गया। वह निश्चित ही ऐतिहासिक प्रतीकों को धूरि धूसरित करने से कम नहीं है। रण क्षेत्र् का मुख्य स्थल रक्त तलाई पर सरकारी भवनों का निर्माण और खेती के लिए अतिक्रमण तथा संकरे दर्रे को तोडकर चौडा स्थान बना देना, इसके साक्षात प्रमाण हैं। इसीलिए इन्दिरा गांधी ने इस स्थल को अक्षुण्य बनाये रखने की आवश्यकता प्रतिपादित की थी। आशा की जानी चाहिए कि केन्द्र और राज्य की सरकारें इस ओर कुछ करने के प्रति सचेष्ट होंगी।



लेख सिर्फ जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है !

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