Dhirendra Singh Rathore (रायपालोत)
“"व्रजदेशा चन्दन वना, मेरुपहाडा मोड़ ! गरुड़ खंगा लंका गढा, राजकुल राठौड़ !! बलहट बँका देवड़ा, करतब बँका गौड़ ! हाडा बँका गाढ़ में, रण बँका राठौड़ !!"”
Tuesday, June 29, 2010
मीराबाई
कृष्णभक्ति शाखा की हिंदी की महान कवयित्री मीराबाई का जन्म संवत् १५७३ में जोधपुर में चोकड़ी नामक गाँव में हुआ था। इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं।
विवाह के थोड़े ही दिन के बाद आपके पति का स्वर्गवास हो गया था। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन- प्रति- दिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।
मीराबाई का घर से निकाला जाना
मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग आपको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखा था :-
स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।
मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया:-
जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।
मीरा द्वारा रचित ग्रंथ
मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की--
- बरसी का मायरा
- गीत गोविंद टीका
- राग गोविंद
- राग सोरठ के पद
इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन "मीराबाई की पदावली' नामक ग्रन्थ में किया गया है।
मीराबाई की भक्ति
मीरा की भक्ति में माधुर्य- भाव काफी हद तक पाया जाता था। वह अपने इष्टदेव कृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रुप में करती थी। उनका मानना था कि इस संसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं। कृष्ण के रुप की दीवानी थी--
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरति, साँवरि, सुरति नैना बने विसाल।।
अधर सुधारस मुरली बाजति, उर बैजंती माल।
क्षुद्र घंटिका कटि- तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल।।
मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं -
गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।
इन्होंने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी मिश्रित भाषा में ही है। इसके अलावा कुछ विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में भी लिखा है। इन्होंने जन्मजात कवियित्री न होने के बावजूद भक्ति की भावना में कवियित्री के रुप में प्रसिद्धि प्रदान की। मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविकता पाई जाती है। इन्होंने अपने पदों में श्रृंगार और शांत रस का प्रयोग विशेष रुप से किया है।
इनके एक पद --
मन रे पासि हरि के चरन।
सुभग सीतल कमल- कोमल त्रिविध - ज्वाला- हरन।
जो चरन प्रह्मलाद परसे इंद्र- पद्वी- हान।।
जिन चरन ध्रुव अटल कींन्हों राखि अपनी सरन।
जिन चरन ब्राह्मांड मेंथ्यों नखसिखौ श्री भरन।।
जिन चरन प्रभु परस लनिहों तरी गौतम धरनि।
जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।।
दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।
Dhirendra Singh Rathore, Thikana - Aasop
लेख सिर्फ जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है !
Wednesday, June 23, 2010
राणा रो सोयो दुःख जाग्यो
अरै घास री रोटी ही जद बन बिलावडो ले भाग्यो |
नान्हो सो अमरयो चीख पड्यो राणा रो सोयो दुःख जाग्यो ||
हूँ लड़यो घणो हूँ सहयो घणो
मेवाडी मान बचावण नै ,
हूँ पाछ नहीं राखी रण में
बेरयां रो खून बहावण में ,
जद याद करूँ हल्दी घाटी नैणा में रगत उतर आवै ,
सुख दुःख रो साथी चेतकडो सूती सी हूक जगा ज्यावै ,
पण आज बिलखतो देखूं हूं
जद राज कंवर नै रोटी नै ,
तो क्षात्र - धर्म नै भूलूं हूं
भूलूं हिंदवाणी चोटी नै
महला में छप्पन भोग जका मनवार बिना करता कोनी,
सोनै री थाल्याँ नीलम रै बाजोट बिना धरता कोनी ,
ऐ हाय जका करता पगल्या
फूलां री कंवळी सेजां पर ,
बै आज रुले भूखा तिसिया
हिंदवाणे सूरज रा टाबर ,
आ सोच हुई टूक तड़फ राणा री भीम बजर छाती ,
आँख्यां में आंसू भर बोल्या मै लिख स्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं कियां जद देखै है आडावल ऊँचो हियो लियां ,
चितौड़ खड्यो है मगरां में विकराल भूत सी लियां छियां ,
मै झुकूं कियां ? है आण मनै
कुळ रा केशरियां बानां री ,
मै बुझुं कियां ? हूं सेस लपट
आजादी रै परवानां री ,
पण फेर अमर री सुण बुसक्याँ राणा रो हिवडो भर आयो ,
मै मानूं हूं दिल्लीस तनै समराट सनेसो कैवायो |
राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो सपनूं सो सांचो ,
पण नैण करयो बिसवास नहीं जद बांच बांच न फिर बांच्यो ,
कै आज हिमालो पिघळ बह्यो
कै आज हुयो सूरज सितळ ,
कै आज सेस रो सिर डोल्यो
आ सोच हुयो समराट विकळ,
बस दूत इशारों पा भाज्या पीथळ नै तुरत बुलावण नै ,
किरणां रो पीथळ आ पुग्यो आ सांचो भरम मिटावण नै ,
बीं वीर बांकू डै पीथळ नै
रजपूती गौरव भारी हो ,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हो
राणा रो प्रेम पुजारी हो ,
बैरयां रै मन रो काँटों हो बीकाणू पूत खरारो हो ,
राठौड़ रणा में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो ,
आ बात पातस्या जाणे हो
घावां पर लूण लगावण नै ,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो
राणा री हार बंचावण नै ,
म्हे बाँध लियो है पीथळ सुण पिंजरे में जंगळी शेर पकड़ ,
आ देख हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां अकड़ ?
मर डूब चलू भर पाणी में
बस झुन्ठा गाल बजावै हो ,
पण टूट गयो बीं राणा रो
तूं भाट बण्यो बिडदावै हो ,
मै आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में है ,
अब बता मनै किण रजवट रै रजपूती खून रगां में है ?
जद पीथळ कागद ले देखी
राणा री सागी सैनाणी ,
निवै स्यूं धरती खसक गई
आँख्यां में भर आयो पाणी ,
पण फेर कही ततकाल संभळ आ बात सफा ही झूंठी है ,
राणा री पाघ सदा ऊँची राणा री आण अटूटी है |
ल्यो हुकुम हुवै तो लिख पूछूं
राणा नै कागद रै खातर ,
लै पूछ भलांई पीथळ तूं
आ बात सही है बोल्यो अकबर ,
म्हे आज सुणी है नाहरियो
स्याला रै सागै सोवैलो ,
म्हे आज सुणी है सूरजडो
बादळ री ओटा खोवैलो ,
म्हे आज सुणी है चातगडो
धरती रो पाणी पिवैलो ,
म्हे आज सुणी है हाथीडो
कूकर री जूणा जिवैलो ,
म्हे आज सुणी है थकां खसम
अब रांड हुवैली रजपूती ,
म्हे आज सुणी है म्याना में
तरवार रवैली अब सूती ,
तो म्हांरो हिवडो कांपै है मुछ्याँ री मोड़ मरोड़ गई ,
पीथळ नै राणा लिख भेजो आ बात कठे तक गिणा सही ?
पीथळ रा आखर पढता ही
राणा री आंख्यां लाल हुई ,
धिक्कार मनै हूं कायर हूं
नाहर री एक दकाल हुई ,
हूं भूख मरूं हूं प्यास मरूं
मेवाड़ धरा आजाद रवै ,
हूं घोर उजाडा में भटकूं
पण मन में मां री याद रवै ,
हूं रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चूकाऊँला,
औ सीस पडे पण पाघ नहीं दिल्ली रो मान झुकाऊँला,
पीथळ के खिमता बादळ री
जो रोकै सूर उगाळी नै ,
सिंघा री हाथळ सह लेवै
वा कूख मिली कद स्याळी नै ?
धरती रो पाणी पिवै इसी
चातक री चूंच बणी कोनी ,
कूकर री जूणा जिवै इसी
हाथी री बात सुणी कोनी ,
आं हाथां में तरवार थकां
कुण रांड कवै है रजपूती ?
म्याना रै बदले बैरयां री
छात्याँ में रैवै ली सूती ,
मेवाड़ धधकतो अंगारों आंध्यां में चमचम चमकैलो,
कड़खै री उठती तानां पर पग पग खांडो खड्कैलो ,
राखो थे मुछ्याँ एठ्योड़ी
लोही री नदी बहा दयूंला ,
हूं अथक लडूंला अकबर स्यूं
उज्ड्यो मेवाड़ बसा दयूंला ,
जद राणा रो सन्देश गयो पीथळ री छाती दूणी ही ,
हिंदवाणों सूरज चमकै हो अकबर री दुनिया सूनी ही |
लेख सिर्फ जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है !
Friday, June 18, 2010
दुर्गादास ( Photos)
माई एडा पूत जण,जैडा दुर्गादास
मार मंडासो राख्यो बिन थाम्बे आकाश'
दुरगो आसकरण रो,नित उठ बागा जाये
अमल औरंग रो उतारे, दिल्ली धड़का खाए
Dhirendra Singh Rathore, Thikana Aasop
लेख सिर्फ जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है !
राठोड़ों का इतिहास Dhirendra Singh Rathore (रायपालोत)
राठोड़ों का इतिहास Dhirendra Singh Rathore
“"व्रजदेशा चन्दन वना, मेरुपहाडा मोड़ ! गरुड़ खंगा लंका गढा, राजकुल राठौड़ !! बलहट बँका देवड़ा, करतब बँका गौड़ ! हाडा बँका गाढ़ में, रण बँका राठौड़ !!"”
जय माँ भवानी
वंश -सूर्यवंश
गोत्र -गोतम
नदी -सरयू
वृक्ष-नीम
कुलदेवी -पहली -बृहमाणी
दूसरी -राठेश्वरी
तीसरी -पथणी
चोथी -पंखनी अभी व्
पाचवी -नागणेचिया
निशान -पचरंगा
नगारा-रणजीत
शाखा -तेरह में से दानेसरा राजस्थान में है जो सूत्र -गोभिल प्रवर(तीन )-गोतम,वशिष्ट ,वाहस्पत्य
शिखा -दाहिनी
पितृ -सोम सायसर
पुरोहित -सेवड़
भाट-सिगेंलिया
ढोल -भंवर
तलवार -रणथली
घोड़ा -श्यामकर्ण
गुरु -वशिष्ट
भेरू-मंडोर
कुलदेवी स्थान -नागाणा जिला -बाड़मेर
कुण्ड -सूर्य
क्षेत्र -नारायण
चारण -रोहडिया
पुत्र -उषा
माला -रतन
धर्म -संन्यास ,वैष्णव
पूजा -नीम
तम्बू -भगवान
बन्दूक -सदन
घाट -हरिव्दार
देग -भुंजाई
शंख -दक्षिणवर्त
सिंहासन -चन्दन का
खांडा-जगजीत
बड-अक्षय
गाय-कपिला
पहाड़ -गांगेय
बिडद-रणबंका
उपाधि -कमधज
ढोली-देहधड़ा
बंधेज -वामी (बाया)
पाट-दाहिना
निकास -अयोध्या
चिन्ह -चिल
ईष्ट -सीताराम ,लक्ष्मीनारायण
It is also :- कश्यप ऋषि के घराने में राजा बली राठोड का वंश राठोड वंश कहलाया ऋषि वंश राठोड की उत्पत्ति सतयुग से आरम्भ होती है वेद - यजुर्वेद शाखा - दानेसरा गोत्र - कश्यप गुरु - शुक्राचार्य देवी - नाग्नेचिया पर्वत - मरुपात नगारा - विरद रंणबंका हाथी - मुकना घोड़ा - पिला घटा - तोप तम्बू झंडा - गगनचुम्बी साडी - नीम की तलवार - रण कँगण ईष्ट - शिव का तोप - द्न्कालु धनुष - वान्सरी निकाश - शोणितपुर (दानापुर) बास - कासी, कन्नोज, कांगडा राज्य, शोणितपुर, त्रिपुरा, पाली, मंडोवर, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, इडर, हिम्मतनगर, रतलाम, रुलाना, सीतामऊ, झाबुबा, कुशलगढ़, बागली, जिला-मालासी, अजमेरा आदि ठिकाना दानसेरा शाखा का है
राठोड़ राजपूतो की उत्तपति सूर्यवंशी राजा के राठ(रीढ़) से उत्तपन बालक से हुई है इस लिए ये राठोड कहलाये, राठोरो की वंशावली मे उनकी राजधानी कर्नाट और कन्नोज बतलाई गयी है!
राठोड सेतराग जी के पुत्र राव सीहा जी थे! मारवाड़ के राठोड़ उन ही के वंशज है! राव सीहा जी ने करीब 700 वर्ष पूर्व द्वारिका यात्रा के दोरान मारवाड़ मे आये और राठोड वंश की नीव रखी! राव सीहा जी राठोरो के आदि पुरुष थे !
अर्वाचीन राठोड शाखाएँ खेडेचा, महेचा , बाडमेरा , जोधा , मंडला , धांधल , बदावत , बणीरोत , चांदावत , दुदावत , मेड़तिया , चापावत , उदावत , कुम्पावत , जेतावत , करमसोत बड़ा , करमसोत छोटा , हल सुन्डिया , पत्तावत , भादावत , पोथल , सांडावत , बाढेल , कोटेचा , जैतमालोत , खोखर , वानर , वासेचा , सुडावत , गोगादे , पुनावत , सतावत , चाचकिया , परावत , चुंडावत , देवराज , रायपालोत , भारमलोत , बाला , कल्लावत , पोकरना . गायनेचा , शोभायत , करनोत , पपलिया , कोटडिया , डोडिया , गहरवार , बुंदेला , रकेवार , बढ़वाल , हतुंधिया , कन्नोजिया , सींथल , ऊहड़ , धुहडिया , दनेश्वरा , बीकावत , भादावत , बिदावत आदि......
Mertiya Rathores: मेडतिया रघुनाथ रे मुख पर बांकी मुछ भागे हाथी शाह रा करके ऊँची पुंछ
मेडतिया रघुनाथ रासो, लड़कर राखयो मान, जीवत जी गैंग पहुंचा, दियो बावन तोला हाड ,
हु खप जातो खग तले, कट जातो उण ठोड ! बोटी-बोटी बिखरती, रेतो रण राठोड !!
मरण नै मेडतिया अर राज करण नै जौधा "
"मरण नै दुदा अर जान(बारात) में उदा "
उपरोक्त कहावतों में मेडतिया राठोडों को आत्मोत्सर्ग में अग्रगण्य तथा युद्ध कौशल में प्रवीण मानते हुए मृत्यु को वरण करने के लिए आतुर कहा गया है मेडतिया राठोडों ने शौर्य और बलिदान के एक से एक कीर्तिमान स्थापित किए है
हरवळ भालां हाँकिया, पिसण फिफ्फरा फौड़। विडद जिणारौ वरणियौ, रण बंका राठौड़ ॥ किरची किरची किरकिया, ठौड़ ठौड़ रण ठौड़। मरुकण बण चावळ मरद, रण रचिया राठौड़ ॥ पतसाहाँ दळ पाधरा, मुरधर धर का मौड़। फणधर जेम फुंकारिया, रण बंका राठौड़ ॥ सिर झड़ियां जुडिया समर, धूमै रण चढ़ घौड़। जोधा कमधज जाणिया, रण बंका राठौड़ ॥ सातां पुरखाँ री सदा, ठावी रहै न ठौड़। साहाँ रा मन संकिया, रण संकै राठौड़ ॥ हाको सुण हरखावणो, आरण आप अरौड़। रण परवाड़ा रावळा, रण बंका राठौड़ ॥
अजमल थारी पारख जद जाणी, दुर्गा छिप्रा दागियों गोलों घर गागोणी
वीर शिरोमणि दुर्गादास राठोड़मेवाड़ के इतिहास में स्वामिभक्ति के लिए जहाँ पन्ना धाय का नाम आदर के साथ लिया जाता है वहीं मारवाड़ के इतिहास में त्याग,बलिदान,स्वामिभक्ति व देशभक्ति के लिए वीर दुर्गादास का नाम स्वर्ण अक्षरों में अमर है वीर दुर्गादास ने वर्षों मारवाड़ की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया,ऐसे वीर पुरुष का जनम मारवाड़ में करनोत ठाकुर आसकरण जी के घर सं. 1695 श्रावन शुक्ला चतुर्दसी को हुवा था आसकरण जी मारवाड़ राज्य की सेना में जोधपुर नरेश महाराजा जसवंत सिंह जी की सेवा में थे अपने पिता की भांति बालक दुर्गादास में भी वीरता कूट कूट कर भरी थी,एक बार जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राईके (ऊंटों के चरवाहे) आसकरण जी के खेतों में घुस गए, बालक दुर्गादास के विरोध करने पर भी चरवाहों ने कोई ध्यान नहीं दिया तो वीर युवा दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर झट से ऊंट की गर्दन उड़ा दी,इसकी खबर जब महाराज जसवंत सिंह जी के पास पहुंची तो वे उस वीर बालक को देखने के लिए उतावले हो उठे व अपने सेनिकों को दुर्गादास को लेन का हुक्म दिया अपने दरबार में महाराज उस वीर बालक की निडरता व निर्भीकता देख अचंभित रह गए,आस्करण जी ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भीकता से स्वीकारते देखा तो वे सकपका गए परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुवा की यह आस्करण जी का पुत्र है,तो महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और इनाम तलवार भेंट कर अपनी सेना में भर्ती कर लिया
उस समय महाराजा जसवंत सिंह जी दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब की सेना में प्रधान सेनापति थे,फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी और वह हमेशा जोधपुर हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था सं. 1731 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह को दबाने हेतु जसवंत सिंह जी को भेजा गया,इस विद्रोह को दबाने के बाद महाराजा जसवंत सिंह जी काबुल में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही वीर गति को प्राप्त हो गए
उस समय उनके कोई पुत्र नहीं था और उनकी दोनों रानियाँ गर्भवती थी,दोनों ने एक एक पुत्र को जनम दिया,एक पुत्र की रास्ते में ही मौत हो गयी और दुसरे पुत्र अजित सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर ओरंग्जेब ने अजित सिंह की हत्या की ठान ली,ओरंग्जेब की इस कुनियत को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और मुकंदास की सहायता से स्वांग रचाकर अजित सिंह को दिल्ली से निकाल लाये व अजित सिंह की लालन पालन की समुचित व्यवस्था करने के साथ जोधपुर में गदी के लिए होने वाले ओरंग्जेब संचालित षड्यंत्रों के खिलाफ लोहा लेते अपने कर्तव्य पथ पर बदते रहे अजित सिंह के बड़े होने के बाद गद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता व स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी,ओरंग्जेब का बल व लालच दुर्गादास को नहीं डिगा सका जोधपुर की आजादी के लिए दुर्गादास ने कोई पच्चीस सालों तक सघर्ष किया,लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा महाराज अजित सिंह के कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ कान भर दिए थे जिससे महाराज दुर्गादास से अनमने रहने लगे वस्तु स्तिथि को भांप कर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना ही उचित समझा और वे मारवाड़ छोड़ कर उज्जेन चले गए वही शिप्रा नदी के किनारे उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे व वहीं उनका स्वर्गवास हुवा दुर्गादास हमारी आने वाली पिडियों के लिए वीरता,देशप्रेम,बलिदान व स्वामिभक्ति के प्रेरणा व आदर्श बने रहेंगे १-मायाड ऐडा पुत जाण,जेड़ा दुर्गादास भार मुंडासा धामियो, बिन थम्ब आकाश
२-घर घोड़ों,खग कामनी,हियो हाथ निज मीतसेलां बाटी सेकणी, श्याम धरम रण नीत वीर दुर्गादास का निधन 22 nov. 1718 में हुवा था इनका अन्तिम संस्कार शिप्रा नदी के तट पर किया गया था "उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुग़ल शक्ति उनके दृढ हृदये को पीछे हटा सकी वह एक वीर था जिसमे राजपूती साहस व मुग़ल मंत्री सी कूटनीति थी "
महाराजा पृथ्वीराज राठौर बीकानेर का राव रामदासजी बलुन्दा के गो रक्षा के लिया लड़े युद्घ और वीरगति पार लिखा दोहा :
विप्र बचावाएँ कारणे, बजे जुझारू ढोल !!
चढ़ चांदा रा पाटवी, बदी जाये निम्बोल
रामदास तद राम भज, चदया तुरका लार !!
तुरकारा तुन्डल करे ,विप्र छुडावन सार !!
रावचांदाजी बलुन्दा के कोलुमंड युद्घ पार :
कोलुमंड झगडो होओ, दीयो न हीणों भावः
बाज़ी मरुधर देश री ,राखी चांदा राव !!
दिल्ही मत जाओ बादशाह क नेडो सरसी काज !!
चांदा विरमदेव रो करे बलुन्दे राज !!
हु खप जातो खग तले, कट जातो उण ठोड !
बोटी-बोटी बिखरती, रेतो रण राठोड !!
Famous song about Rathores
हरवळ भालां हाँकिया, पिसण फिफ्फरा फौड़।
विडद जिणारौ वरणियौ, रण बंका राठौड़ ॥
किरची किरची किरकिया, ठौड़ ठौड़ रण ठौड़।
मरुकण बण चावळ मरद, रण रचिया राठौड़ ॥
पतसाहाँ दळ पाधरा, मुरधर धर का मौड़।
फणधर जेम फुंकारिया, रण बंका राठौड़ ॥
सिर झड़ियां जुडिया समर, धूमै रण चढ़ घौड़।
जोधा कमधज जाणिया, रण बंका राठौड़ ॥
सातां पुरखाँ री सदा, ठावी रहै न ठौड़।
साहाँ रा मन संकिया, रण संकै राठौड़ ॥
हाको सुण हरखावणो, आरण आप अरौड़।
रण परवाड़ा रावळा, रण बंका राठौड़ ॥
Some very famous dohe couplets of Durgadas
अजमल थारी पारख जद जाणी,
दुर्गा छिप्रा दागियों गोलों घर गागोणी
AATH PAHAR CHOBIS GHADI, GHUDLE UPAR VAAS
SAIL ANI SU SEKTO BAATI DURGADAS
Suvaran thala, jime bhup anek
Durgo bhala upra, khadi bati sek
Rajvansh ne rakhiyo shyam dharm marudesh
badla me rakhyo nahi, do ghaj dhar Durgesh
Mitio kalank ajit ro, Gaj layo Durgesh
Durgobabo khush huyo, aakar marudhar desh
Durga Aaskaran ro, as chadhion din-raat
Kshipra tat the dagio, dagan mili na haat
Ek din Aurang yun kahiyo, baalo thanne kain vishesh,
munh maange jinka mile, munh su maang thu Durgesh.
DHAMBAK-DHAMBAK DHOL BAJE, DE DE THOR NANGARA KI,
AASE GHAR DURGA NANHI HOTO, SUNNAT HOTI SARA KI THIS IS COINED BY RAMU JAT
Ab rang ghor andhar, jot mite raja Jase,
tun durga teen baar, aandha lakdi Aasaut
Durga Aaskaran ra nitare baagou jaay
amal Auranga utare, Dilli dhadka khay
Rudra roop ran rith me, sab suran seermodh,
maniyan maayn sumer jyun, rang Durga Rathore by Poet Narayan Singh Shivakar
Jaswant kahiyo joy, ghar rakhawalo goodada
sanchi kidhi soy, aachhi Aaskaran wat
Mukund jaidev Gora Jasdhari
Dhin Durgo rakhio Ajmaal it is mentioned in famous Marwar song "Dhunsa"
Durgadas Rathore by Kamal Singh Bemla
Raja vah tha nahi, ek sadharan sa rajput tha,
rajao ke mastak jhuk jate the, aisa vah saput tha
लेख सिर्फ जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है !
महान दानवीर दुर्गादास
यदि कभी क्षत्रिय जाति का कोई देशभक्त संगठन हो, तो वहां कहना - ' इस संगठन के दुर्गादास जीवन भर तरसता रहा पर सफल नहीं हुआ और आप लोगों के लिए अप्रत्याशित सफलता पर उसने हार्दिक बधाईयाँ भेजी है |' यदि कौम के बन्दे कभी जंगल जंगल छाने , तो मुझे भी सूचना भेजना - ' मेरे बंधू , दुर्गादास , लौट के आ रे , लौट के आ ' | मैं उन कौम के कुशल कारीगरों के साथ सहयोगी और सामूहिक जीवन व्यतीत करना चाहता हूँ | एक बार फिर जंगल-जंगल भटकना चाहता हूँ , घर घर दीप जलना चाहता हूँ , गांव गांव और नगर-नगर में जाकर इस सत्य को कहना चाहता हूँ , कि यह कौम कभी मिटने न पायेगी और ठोकर लगने पर हर बार उठती जाएगी |
पथिक ! तुम रो रहे हो | आंसू मत बहाओ | तुम्हारी आँखों में तो दृढ प्रतिज्ञा के लाल डोरे दिखाई दे रहे थे | मैंने तो तुम्हे बदला लेने की आग में झुलसते देखा है और इसीलिए आज दौ सौ वर्ष बाद मैं अपनी समाधि से पहली बार जागकर कुछ कह पाया हूँ | हिम्मत रखो , बहो मत | तुम्हारे जैसे व्यक्ति से हिम्मत की उम्मीद करता हूँ |
बाबा ! दया करो ! मुझे लज्जित न करो - दया करो , प्रशंसा लज्जित हो रही है | उसे उपयुक्त पात्र चाहिए | मैं तुमसे प्रेरणा की भीख मांगने आया हूँ | मुझे भिक्षा दो | मेरी आँखों में दृढ प्रतिज्ञा कहाँ है ? वे आँखें तो फूट चुकी है | अब तो मैं अन्धा हो चूका हूँ और बदला भी मुझसे ही लिया जा रहा है | यह बदले की आग नहीं , जिसमे मैं जला जा रहा हूँ , यह तो मेरी संघर्ष हीनता जल रही है , तुम्हारे नेत्रों की रोषाग्नि से | मैं तुमसे प्रेरणा की भीख मांगने आया हूँ , मुझे भिक्षा दो |
मुझे भिक्षा दो , संतान -परम्परा की , उस कर्तव्य बुद्धि की जिससे मैं माँ दूध की लाज रख सकूँ | मुझमे धरती के प्रति रागात्मक सम्बन्ध का वह मोह उत्पन्न करो , जिसे मैं धरती के सुहाग की लाज रख सकूँ | मुझे उस अन्न की भिक्षा दो , जिससे मैं अन्न की लाज रख सकूँ | कर्तव्य पालन के मार्ग में अपने विश्वासों के लिए जीने की वह निर्ममता सिखा दो, जो स्वयं जलकर और को प्रकाश दे जिससे मैं नमक की लाज रख सकूँ | छलनाएँ और लालच मुझे मेरे मार्ग से विचलित करने का प्रयास करते है , इसलिए मुझे दे सको तो उस चरित्र की भिक्षा दो , जो तपस्वियों के तप की लाज रख सके | मुझे भक्ति दो| तुम्हारी स्वामिभक्ति मेरे भीतर सोये हुए भगवान् को जगाएगी |
टूट जावूँ पर झुकूं नहीं | हार जावूँ पर आँख में आंसू न बहाऊं | गिर जाऊं पर अपमान का बदला लेने के लिए बार-बार उठता जाऊं | मुझे उस स्वाभिमान कि भिक्षा दो , जिससे मैं समाज के लिए गौरवपूर्ण मर सकूँ |
महान दुर्गादास ! क्या तुम दानवीर भी हो ?
***** ****** *****************
उसका घोडा मुडा |
मेरे समीप आ गया |
अभय मुद्रा में उसका हाथ उठा |
सदियों के बाद उसके होठों के बाँध से मुस्कराहट फूट निकली | मेरे जैसे निष्क्रिय , संघर्षविहीन और गौरवविहीन संतान को देखकर भी उसे शर्म अनुभव नहीं हुई | उसने मुझे इच्छित वस्तु दी |
उसने दानवीरों के दान की लाज रखी |
मैं धन्य हो गया | मेरा मस्तक श्रद्धा से उसके पावन चरणों में झुक गया | आँखों से भागीरथी की पावन धारा बहती रही | बहुत देर तक एक बार फिर उस महापुरुष को देखने के लिए आँखे उठी |
न घोडा था |
न घुड़सवार |
न जाने किस प्रकार दुनियां में वह खो गया , और मैं जैसे आया था वैसे अकेला रह गया |
सामने दिखाई दे रही - छत्री
महान वीर दुर्गादास का चिर उपेक्षित -स्मारक
जिसके चरणों में मन्दाक्रान्ता छंद की भांति बह रही थी - क्षिप्रा
चरण प्रक्षालन करती हुई सी |
Dhirendra Singh Rathore Thikana Aasop
लेख सिर्फ जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है !
वीर शिरोमणि दुर्गादास राठोड़
Dhirendra Singh Rathore Thikana Aasop
वीर शिरोमणि दुर्गादास राठोड़
मेवाड़ के इतिहास में स्वामिभक्ति के लिए जहाँ पन्ना धाय का नाम आदर के साथ लिया जाता है वहीं मारवाड़ के इतिहास में त्याग,बलिदान,स्वामिभक्ति व देशभक्ति के लिए वीर दुर्गादास का नाम स्वर्ण अक्षरों में अमर है वीर दुर्गादास ने वर्षों मारवाड़ की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया,ऐसे वीर पुरुष का जनम मारवाड़ में करनोत ठाकुर आसकरण जी के घर सं. 1695 श्रावन शुक्ला चतुर्दसी को हुवा था आसकरण जी मारवाड़ राज्य की सेना में जोधपुर नरेश महाराजा जसवंत सिंह जी की सेवा में थे अपने पिता की भांति बालक दुर्गादास में भी वीरता कूट कूट कर भरी थी,एक बार जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राईके (ऊंटों के चरवाहे) आसकरण जी के खेतों में घुस गए, बालक दुर्गादास के विरोध करने पर भी चरवाहों ने कोई ध्यान नहीं दिया तो वीर युवा दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर झट से ऊंट की गर्दन उड़ा दी,इसकी खबर जब महाराज जसवंत सिंह जी के पास पहुंची तो वे उस वीर बालक को देखने के लिए उतावले हो उठे व अपने सेनिकों को दुर्गादास को लेन का हुक्म दिया अपने दरबार में महाराज उस वीर बालक की निडरता व निर्भीकता देख अचंभित रह गए,आस्करण जी ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भीकता से स्वीकारते देखा तो वे सकपका गए परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुवा की यह आस्करण जी का पुत्र है,तो महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और इनाम तलवार भेंट कर अपनी सेना में भर्ती कर लिया
उस समय महाराजा जसवंत सिंह जी दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब की सेना में प्रधान सेनापति थे,फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी और वह हमेशा जोधपुर हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था सं. 1731 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह को दबाने हेतु जसवंत सिंह जी को भेजा गया,इस विद्रोह को दबाने के बाद महाराजा जसवंत सिंह जी काबुल में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही वीर गति को प्राप्त हो गए
उस समय उनके कोई पुत्र नहीं था और उनकी दोनों रानियाँ गर्भवती थी,दोनों ने एक एक पुत्र को जनम दिया,एक पुत्र की रास्ते में ही मौत हो गयी और दुसरे पुत्र अजित सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर ओरंग्जेब ने अजित सिंह की हत्या की ठान ली,ओरंग्जेब की इस कुनियत को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और मुकंदास की सहायता से स्वांग रचाकर अजित सिंह को दिल्ली से निकाल लाये व अजित सिंह की लालन पालन की समुचित व्यवस्था करने के साथ जोधपुर में गदी के लिए होने वाले ओरंग्जेब संचालित षड्यंत्रों के खिलाफ लोहा लेते अपने कर्तव्य पथ पर बदते रहे अजित सिंह के बड़े होने के बाद गद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता व स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी,ओरंग्जेब का बल व लालच दुर्गादास को नहीं डिगा सका जोधपुर की आजादी के लिए दुर्गादास ने कोई पच्चीस सालों तक सघर्ष किया,लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा महाराज अजित सिंह के कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ कान भर दिए थे जिससे महाराज दुर्गादास से अनमने रहने लगे वस्तु स्तिथि को भांप कर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना ही उचित समझा और वे मारवाड़ छोड़ कर उज्जेन चले गए वही शिप्रा नदी के किनारे उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे व वहीं उनका स्वर्गवास हुवा दुर्गादास हमारी आने वाली पिडियों के लिए वीरता,देशप्रेम,बलिदान व स्वामिभक्ति के प्रेरणा व आदर्श बने रहेंगे १-मायाड ऐडा पुत जाण,जेड़ा दुर्गादास भार मुंडासा धामियो, बिन थम्ब आकाश
२-घर घोड़ों,खग कामनी,हियो हाथ निज मीतसेलां बाटी सेकणी, श्याम धरम रण नीत वीर दुर्गादास का निधन 22 nov. 1718 में हुवा था इनका अन्तिम संस्कार शिप्रा नदी के तट पर किया गया था "उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुग़ल शक्ति उनके दृढ हृदये को पीछे हटा सकी वह एक वीर था जिसमे राजपूती साहस व मुग़ल मंत्री सी कूटनीति थी "
सिमको पार्क अब होगा वीर दुर्गादास पार्क : मुख्यमंत्री ने की घोषणा, नाराज राठौर समाज हुआ खुश
ग्वालियर 21 जनवरी 09 । मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने एक रोमांचक घटनाक्रम के दौरान सिमको पार्क का नाम वीर दुर्गादास राठौर के नाम पर रखे जाने की घोषणा की । साथ ही आंदोलित राठौर समाज को यह कह कर शांत किया कि जल्दी ही वीर दुर्गादास की प्रतिमा स्थापित की जायेगी । उल्लेखनीय है कि राठौर समाज अरसे से वीर दुर्गादास राठौर की प्रतिमा स्थापित करने के प्रयास में लगा है ।
मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान पुरानी छावनी में हुये विकास कार्यों का जायजा लेने पहुंचे थे । कुछ समय बाद उनका काफिला सिमको पार्क की ओर से गुजरा जहॉ पहले से ही राठौर समुदाय के लोग जमा थे । उन सभी की भाव भंगिमायें नाराजगी की थी । वहाँ सुरेन्द्र नाम का युवक वीर दुर्गादास की प्रतिमा स्थापना के लिये बनाये गये 11 फुट ऊँचे पेडस्टल पर चढ़ा हुआ था । भगवा वस्त्र पहने वह युवक चिल्ला रहा था मुख्यमंत्री जी मेरी भी सुनो, दुर्गादास की प्रतिमा लगवाओ । नहीं तो मैं आत्महत्या कर लूँगा ।
संवेदनशील मुख्यमंत्री चौहान ने तुरंत काफिला रूकवाया वे सीधे भीड़ को चीरते हुये 4-5 फुट ऊंचे पैडस्टल के पहले स्टेप पर चढ़ गये तथा पूरी बात समझ कर उन्होनें कहा कि सिमको पार्क का नाम अब वीर दुर्गादास राठौर पार्क होगा । उन्होंने राठौर समाज को आश्वस्त किया कि वीर दुर्गादास की प्रतिमा स्थापित करने के सार्थक प्रयास होंगें । मुख्यमंत्री की घोषणा सुनते ही भीड़ का गुस्सा शांत हो गया। उन्होंने संबंधित अधिकारियों को निर्देश दिये कि वे वर्तमान प्रस्तावित स्थल सिमको पार्क में न्यायालय के निर्देशों के मद्देनजर सभी जरूरी कवायद शुरू करें ताकि प्रतिमा स्थापित कराई जा सके । मुख्यमंत्री की इन घोषणाओं का चमत्कारिक असर हुआ जो भीड़ नारे लगा रही थी अब वही भीड़ मुख्यमंत्री जी के जिन्दाबाद के नारे लगाने लगी और फूल मालाएँ पहनाने लगी । इधर जुनूनी सतीश जो आत्महत्या की बात कर रहा था मुख्यमंत्री जिन्दाबाद के नारे लगाने लगा ।
महान वीर और धर्मनिरपेक्ष इतिहास पुरूष थे वीर दुर्गादास
वीर दुर्गादास राठौर मध्ययुग के तत्कालीन मारवाड़ राज्य के शासक जसवंत सिंह के सरदार थे। बाद में वीर दुर्गादास ने मारवाड़ शासक अजीत सिंह के संरक्षक के रूप में भारतीय इतिहास में असाधारण अध्याय लिखे । वे मुगल शासन औरंगजेब के सफल प्रतिरोधक साबित हुये । तत्कालीन समय में औरंगजेब ने उन्हें अपना सबसे बड़ा शत्रु माना था । इन सबसे परे वीर दुर्गादास राठौर महान धर्मनिरपेक्ष इतिहास पुरूष के रूप में याद किये जाते हैं। इतिहासकारों के मुताबिक वीर दुर्गादास ने औरंगजेब की लाड़ली बेटी का भी लालन-पालन किया था । वह भी इस्मालिक रीति रिवाज से । उनकी धर्मनिरपेक्षता की यह मिसाल युगों तक याद की जाती रहेगी ।
लेख सिर्फ जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है !
Thursday, June 17, 2010
आदरणीय श्री भैरों सिंह जी शेखावत को अश्रुपूरित श्रधांजलि
आदरणीय श्री भैरों सिंह जी को अश्रुपूरित श्रधांजलि
Dhirendra Singh Rathore, Thikana Aasop
शेखा-कुल रा लाडला,धाकड़ धुनी सुजान |
उजला सूरज-कुल-रतन,भैरूं सिंघ मतिमान ||१
मरुधर-माटी री महक,जन-मन का सरदार |
दीन-हीन-रक्षक सुधी,थे भारत-गल-हार ||२
भोग्यो जीवन गांव रो,देख्या घणा अभाव |
पण सांचा अनथक पथिक,राख्यो कर्मठ भाव ||३
राष्ट्र धरम ने पालियो,जस फैल्यो चौफेर |
धन सेवा री मूर्ति,शेखावाटी शेर ||४
मरुधर रो मोती कथां,के मरुधर रो शेर |
के मरुधर रो च्यानानो,कीरत चढी सुमेर ||५(विद्वान कवि डा. उदयवीर शर्मा द्वारा रचित)
भैरों सिंह शेखावत विराट व्यक्तित्व के धनी थे। वे जन-जन के नेता थे। एक साधारण परिवार में जन्म लेकर राजनीति ...के शिखर तक पहुंचने वाले "शेर-ए-राजस्थान" के निधन से राजनीति के एक युग का अंत हो गया |
श्री भैरों सिंह जी के निधन के बाद भारतीय राजनीती में उनकी कमी हमेशा खलती रहेगी |
विनम्र अश्रुपूरित श्रधांजलि |
लेख सिर्फ जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है !
महाराणा प्रताप
Born: May 9, 1540 in Kumbhalgarh, Rajasthan
Father's Name: Maharana Udai Singh II
Mother's Name: Rani Jeevant Kanwar
Died: January 29, 1597 in Chavand
Maharana Pratap was born on May 9th 1540 in Kumbhalgarh, Rajasthan. His father was Maharana Udai Singh II and his mother was Rani Jeevant Kanwar. Maharana Udai Singh II ruled the kingdom of Mewar, with his capital at Chittor. Maharana Pratap was the eldest of twenty-five sons and hence given the title of Crown Prince. He was destined to be the 54th ruler of Mewar, in the line of the Sisodiya Rajputs.
कुम्भलगढ़ दुर्ग
Dhirendra Singh Rathore 17/06/2010
कुम्भलगढ़ राजस्थान ही नहीं भारत के सभी दुर्गों में विशिष्ठ स्थान रखता है उदयपुर से ७० कम दूर समुद्र तल से 1087 मीटर ऊँचा और 30 km व्यास में फैला यह दुर्ग मेवाड़ के यश्वी महाराणा कुम्भा की सुझबुझ व प्रतिभा का अनुपम स्मारक है | इस दुर्ग का निर्माण सम्राट अशोक के दुसरे पुत्र संप्रति के बनाये दुर्ग के अवशेषों पर १४४३ से शुरू होकर १५ वर्षों बाद १४५८ में पूरा हुआ था | दुर्ग का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर महाराणा कुम्भा ने सिक्के ढलवाये जिन पर दुर्ग और उसका नाम अंकित था | वास्तु शास्त्र के नियमानुसार बने इस दुर्ग में प्रवेश द्वार, प्राचीर,जलाशय, बहार जाने के लिए संकटकालीन द्वार, महल,मंदिर,आवासीय इमारते ,यज्ञ वेदी,स्तम्भ, छत्रियां आदि बने है |
दुर्ग कई घाटियों व पहाडियों को मिला कर बनाया गया है जिससे यह प्राकृतिक सुरक्षात्मक आधार पाकर अजेय रहा | इस दुर्ग में ऊँचे स्थानों पर महल,मंदिर व आवासीय इमारते बनायीं गई और समतल भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए किया गया वही ढलान वाले भागो का उपयोग जलाशयों के लिए कर इस दुर्ग को यथासंभव स्वाबलंबी बनाया गया | इस दुर्ग के भीतर एक और गढ़ है जिसे कटारगढ़ के नाम से जाना जाता है यह गढ़ सात विशाल द्वारों व सुद्रढ़ प्राचीरों से सुरक्षित है | इस गढ़ के शीर्ष भाग में बादल महल है व कुम्भा महल सबसे ऊपर है |
महाराणा प्रताप की जन्म स्थली कुम्भलगढ़ एक तरह से मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है | महाराणा कुम्भा से लेकर महाराणा राज सिंह के समय तक मेवाड़ पर हुए आक्रमणों के समय राजपरिवार इसी दुर्ग में रहा | यहीं पर प्रथ्विराज और महाराणा सांगा का बचपन बीता था | महाराणा उदय सिंह को भी पन्ना धाय ने इसी दुर्ग में छिपा कर पालन पोषण किया था | हल्दी घाटी के युद्ध में हार के बाद महाराणा प्रताप भी काफी समय तक इसी दुर्ग में रहे | इस दुर्ग के बनने के बाद ही इस पर आक्रमण शुरू हो गए लेकिन एक बार को छोड़ कर ये दुर्ग प्राय: अजेय ही रहा है लेकिन इस दुर्ग की कई दुखांत घटनाये भी है जिस महाराणा कुम्भा को कोई नहीं हरा सका वही परमवीर महाराणा कुम्भा इसी दुर्ग में अपने पुत्र उदय कर्ण द्वारा राज्य लिप्सा में मारे गए | कुल मिलाकर दुर्ग एतिहासिक विरासत की शान और शूरवीरों की तीर्थ स्थली रहा है माड गायक इस दुर्ग की प्रशंसा में अक्सर गीत गाते है :
कुम्भलगढ़ कटारगढ़ पाजिज अवलन फेर
संवली मत दे साजना,बसुंज,कुम्भल्मेर |
कुम्भलगढ़ दुर्ग का विडियो देखने के लिए यहाँ चटका लगायें |
लेख सिर्फ जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है !
महाराणा प्रताप- II
Born: May 9, 1540 in Kumbhalgarh, Rajasthan
Father's Name: Maharana Udai Singh II
Mother's Name: Rani Jeevant Kanwar
Died: January 29, 1597 in Chavand
Maharana Pratap was born on May 9th 1540 in Kumbhalgarh, Rajasthan. His father was Maharana Udai Singh II and his mother was Rani Jeevant Kanwar. Maharana Udai Singh II ruled the kingdom of Mewar, with his capital at Chittor. Maharana Pratap was the eldest of twenty-five sons and hence given the title of Crown Prince. He was destined to be the 54th ruler of Mewar, in the line of the Sisodiya Rajputs.
कुम्भलगढ़ दुर्ग
Dhirendra Singh Rathore 17/06/2010
कुम्भलगढ़ राजस्थान ही नहीं भारत के सभी दुर्गों में विशिष्ठ स्थान रखता है उदयपुर से ७० कम दूर समुद्र तल से 1087 मीटर ऊँचा और 30 km व्यास में फैला यह दुर्ग मेवाड़ के यश्वी महाराणा कुम्भा की सुझबुझ व प्रतिभा का अनुपम स्मारक है | इस दुर्ग का निर्माण सम्राट अशोक के दुसरे पुत्र संप्रति के बनाये दुर्ग के अवशेषों पर १४४३ से शुरू होकर १५ वर्षों बाद १४५८ में पूरा हुआ था | दुर्ग का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर महाराणा कुम्भा ने सिक्के ढलवाये जिन पर दुर्ग और उसका नाम अंकित था | वास्तु शास्त्र के नियमानुसार बने इस दुर्ग में प्रवेश द्वार, प्राचीर,जलाशय, बहार जाने के लिए संकटकालीन द्वार, महल,मंदिर,आवासीय इमारते ,यज्ञ वेदी,स्तम्भ, छत्रियां आदि बने है |
दुर्ग कई घाटियों व पहाडियों को मिला कर बनाया गया है जिससे यह प्राकृतिक सुरक्षात्मक आधार पाकर अजेय रहा | इस दुर्ग में ऊँचे स्थानों पर महल,मंदिर व आवासीय इमारते बनायीं गई और समतल भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए किया गया वही ढलान वाले भागो का उपयोग जलाशयों के लिए कर इस दुर्ग को यथासंभव स्वाबलंबी बनाया गया | इस दुर्ग के भीतर एक और गढ़ है जिसे कटारगढ़ के नाम से जाना जाता है यह गढ़ सात विशाल द्वारों व सुद्रढ़ प्राचीरों से सुरक्षित है | इस गढ़ के शीर्ष भाग में बादल महल है व कुम्भा महल सबसे ऊपर है |
महाराणा प्रताप की जन्म स्थली कुम्भलगढ़ एक तरह से मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है | महाराणा कुम्भा से लेकर महाराणा राज सिंह के समय तक मेवाड़ पर हुए आक्रमणों के समय राजपरिवार इसी दुर्ग में रहा | यहीं पर प्रथ्विराज और महाराणा सांगा का बचपन बीता था | महाराणा उदय सिंह को भी पन्ना धाय ने इसी दुर्ग में छिपा कर पालन पोषण किया था | हल्दी घाटी के युद्ध में हार के बाद महाराणा प्रताप भी काफी समय तक इसी दुर्ग में रहे | इस दुर्ग के बनने के बाद ही इस पर आक्रमण शुरू हो गए लेकिन एक बार को छोड़ कर ये दुर्ग प्राय: अजेय ही रहा है लेकिन इस दुर्ग की कई दुखांत घटनाये भी है जिस महाराणा कुम्भा को कोई नहीं हरा सका वही परमवीर महाराणा कुम्भा इसी दुर्ग में अपने पुत्र उदय कर्ण द्वारा राज्य लिप्सा में मारे गए | कुल मिलाकर दुर्ग एतिहासिक विरासत की शान और शूरवीरों की तीर्थ स्थली रहा है माड गायक इस दुर्ग की प्रशंसा में अक्सर गीत गाते है :
कुम्भलगढ़ कटारगढ़ पाजिज अवलन फेर
संवली मत दे साजना,बसुंज,कुम्भल्मेर |
कुम्भलगढ़ दुर्ग का विडियो देखने के लिए यहाँ चटका लगायें |
‘‘माई ऐहडा-पूत जण, जेहा राण प्रताप।
अकबर सूतो ओझके, जाण सिराणे सांप ।।
भारतीय इतिहास में एक गौरवशाली रणक्षेत्र् हल्दीघाटी का नाम आते ही मन में वीरोचित भाव उमडने - घुमडने लगते हैं। अरावली पर्वतमाला की उपत्यकाओं से आच्छादित इस रणक्षेत्र् में स्थित 432 वर्ष पूर्व के विशाल वृक्ष और जल प्रवाह के नाले मूक साक्षी बने आज भी वद्यमान है। यह घाटी दूर कहीं से आ रही घोडों की टाप को रोमांचित करती आवाज और हाथियों की चिघांड से मानो गुंजायमान होने लगती है। रणभेरियों की आवाजें मन को मथने सी लगती है। उसी क्षण दूर से एक श्वेत रेखा दृष्टिगत होती है। समीप आती हुई यह रेखा चेतक का रूप ले लेती है। यही आसमानी रंग का घोडा राणा प्रताप को प्राणों की तरह प्रिय था। लगता था मानों यह अश्व अपने अद्वितीय सवार को लेकर हवा में उडा जा रहा था। दृढ प्रतिज्ञ एवं विलक्षण व्यक्तित्व के धनी महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को कुम्भलगढ में हुआ । पिता उदयसिंह की मृत्यु के उपरान्त राणा प्रताप का राज्याभिषेक 28 फरवरी, 1572 को गोगुन्दा में हुआ। विरासत में उन्हें मेवाड की प्रतिष्ठा और स्वाधीनता की रक्षा करने का भार ऐसे समय में मिला जबकि महत्वाकांक्षी सम्राट अकबर से शत्र्ुता के कारण समूचा मेवाड एक विचित्र् स्थिति में था। सम्राट अकबर ने मैत्रीपूर्ण संधि के लिए एक कूटनीतिक प्रस्ताव महाराणा को भेजा परन्तु वह शूरवीर इस प्रस्ताव से गुमराह होने की बजाय मुगलिया सेना को सबक सिखाने का निश्चय कर मेवाड की राजधानी गोगुन्दा से बदल कर कुम्भलगढ कर ली। प्रताप ने अपने दूरदराज के अंचलों से भारी संख्या में भीलों को एकत्र्ति किया। उनकी सेना में दो हजार पैदल, एक सौ हाथी, तीन हजार घुडसवार व एक सौ भाला सैनिक तथा दुन्दुभि व नगाडे बजाने वाले थे। अकबर की ओर से मानसिंह के नेतृत्व में पांच हजार सैनिकों की एक टुकडी व तीन हजार अन्य विश्वस्त व्यक्तियों ने मेवाड में बनास नदी के तट पर पडाव डाल दिया। 21 जून, 1576 को प्रातः दोनों ओर की सेनायें आमने-सामने आ पहुंची। प्रताप की सेना घाटी में तथा मुगलिया सेना बादशाह बाग के उबड - खाबड मैदान में डट गई। दोनों और से पहले पहल करने की ताक में खडी सेनाओं में मुगलों की सेना के कोई अस्सी जवानों की टुकडी ने घुसपैठ शुरू कर दी। प्रताप को यह कब सहन होने वाला था ? रणभेरी के बजते ही प्रताप ने हल्दीघाटी के संकरे दर्रे पर ही मुगलों को करारी हार का प्रथम सबक सिखा दिया और ऐसा जबरदस्त प्रहार किया कि शाही सेना में खलबलाहट मच गई। देखते ही देखते यह युद्ध रक्त तलाई के चौडे स्थल में होने लगा। तलवारों की झंकार से गुंजायमान यह रणक्षेत्र् दोनों ही सेनाओं के सैनिकों के रक्त से लाल हो उठा। इस विप्लवकारी नाजुक हालत में प्रताप ने अपने चेतक घोडे को ऐड लगा हाथी पर सवार मानसिंह पर भाले से तेज प्रहार किया परन्तु हाथी के दांत में बंधी तलवार से चेतक बुरी तरह घायल हो गया। हालात ने राणा को रणक्षेत्र् छोडने के लिए विवश कर दिया। झाला मान ने मुगलिया सेना से घिरे अपने स्वामी प्रताप को राष्ट्रहित में बचाने के लिए मेवाड का राजमुकुट अपने सिर पर रखकर प्रताप को युद्ध क्षेत्र् से सुरक्षित बाहर निकालने में तो सफल हो गया परन्तु स्वयं ने लडते हुए वीरगति प्राप्त कर ली। हल्दीघाटी के इस विश्व विख्यात युद्ध में प्रताप की सीधी जीत भले ही नहीं हुई हो परन्तु मातृभूमि के रक्षक, स्वतंत्र्ता सेनानी, महान त्यागी, स्वाभिमानी, पक्के इरादों के धनी के रूप में महाराणा प्रताप राजपुताने के गौरव और उसकी शानदार परम्पराओं के द्योतक बने हुए हैं। मुगलों के अभिमान के लिए सदैव सिरदर्द बने रहे प्रताप ने अपनी नई राजधानी चावण्ड बनाई जहां 19 जनवरी, 1597 को उनका देहान्त हो गया। चावण्ड में बनी उनकी समाधि पर पहुंचते ही यह दोहा स्मृति पटल पर उभरने लगता है ः- ‘‘माई ऐहडा-पूत जण, जेहा राण प्रताप। अकबर सूतो ओझके, जाण सिराणे सांप ।। कहना न होगा कि हल्दीघाटी का युद्ध एक विचार शक्ति बन कर जन मानस को आंदोलित करते हुए प्रकाश स्तम्भ के रूप में इस तरह उभरा कि विश्व की महानतम शक्तिशाली रही भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को स्वामी भक्त अश्व चेतक की समाधि तक आने के लिए विवश होना पडा। 21 जून, 1976 को राजस्थान सरकार द्वारा हल्दीघाटी स्वातन्त्र््य, संग्राम की स्मृति में आयोजित चतुःशती समारोह में इन्दिरा जी शिरकत करने हल्दीघाटी के ऐतिहासिक रणक्षेत्र् में पहुंची तो राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व. हरिदेव जोशी के नेतृत्व में वहां उपस्थित विशाल जन समूह ने तुमूल करतल ध्वनि से उनका स्वागत व अभिनन्दन किया। श्रीमती गांधी सीधी चेतक की समाधि पर पहुंची और अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने के बाद प्रतापी प्रताप के जिरह बख्तर के संग्रहालय का अवलोकन करने गई। उन्होंने इस रणक्षेत्र् की महत्ता को अक्षुण्य बनाये रखने के उपायों पर चर्चा करते हुए अपने अमूल्य सुझाव भी दिये। वे इस महान सपूत के अद्वितीय कृतित्व से अभिभूत हो एक नई स्फूर्ति, दिशा और संकल्प के साथ लौटी। हल्दीघाटी का विश्व विख्यात रणक्षेत्र् हमारी राष्ट्रीय धरोहर के रूप में जाना और माना जाता रहा है। परन्तु आजादी के बाद विकास की पिपासा शांत करने के लिए जिस तरह इस धरोहर का मौलिक स्वरूप ही बदल दिया गया। वह निश्चित ही ऐतिहासिक प्रतीकों को धूरि धूसरित करने से कम नहीं है। रण क्षेत्र् का मुख्य स्थल रक्त तलाई पर सरकारी भवनों का निर्माण और खेती के लिए अतिक्रमण तथा संकरे दर्रे को तोडकर चौडा स्थान बना देना, इसके साक्षात प्रमाण हैं। इसीलिए इन्दिरा गांधी ने इस स्थल को अक्षुण्य बनाये रखने की आवश्यकता प्रतिपादित की थी। आशा की जानी चाहिए कि केन्द्र और राज्य की सरकारें इस ओर कुछ करने के प्रति सचेष्ट होंगी।
लेख सिर्फ जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है !
धन्य हुआ रे राजस्थान,जो जन्म लिया यहां प्रताप ने।
Dhirendra Singh Rathore, Thikana Aasopअरे घास री रोटी ही
Dhirendra Singh Rathore Thikana - Aasop महाराणा प्रताप पर कन्हेया लाल सेठिया कि रचना "पाथल और पीथल "
लेख सिर्फ जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है !
Maharana Pratap - Mewar's Greatest Hero
राष्ट्रगौरव महाराणा प्रताप को नमन
Dhirendra Singh Rathore, Thikana Aasop
आज देश के हर कोने में राष्ट्र गौरव मेवाड़ के महाराणा हिंदुआ सूर्य महाराणा प्रताप को याद किया जा रहा है | देश के कई नगरों व गांवों में आज राणा प्रताप की जयंती के अवसर पर रैलियां व सभाओं का आयोजन किया जा रहा है | इस देश में अनेक राजा-महाराजा ,बादशाह व नबाब हुए है जो राजनीती ,कूटनीति व युद्ध कौशल में राणा प्रताप से भी दक्ष थे | मेवाड़ के महाराणा कुम्भा को ही लें उनके जैसा वीर योद्धा व सफल प्रशासक हमारे इतिहास में बहुत ही कम नजर आयेंगे | जोधपुर का राजा मालदेव अपने ज़माने का विकट योद्धा था , हम्मीर जैसे योद्दा का हट व वीरता कौन नहीं जानता | राणा सांगा की वीरता व देश भक्ति को कौन भुला सकता है | पृथ्वीराज चौहान की वीरता से भी हम सभी परिचित है | पर फिर भी ये योद्धा राणा प्रताप की तरह जन-जन के हृदय में अपनी जगह बनाने में सफल नहीं रहे | दूग दूग दूग रन के डंके, मारू के साथ भ्याद बाजे! ताप ताप ताप घोड़े कूद पड़े, काट काट मतंग के राद बजे! कल कल कर उठी मुग़ल सेना, किलकर उठी, लालकर उठी! ऐसी मायाण विवार से निकली तुरंत, आही नागिन सी फुल्कर उठी! फ़र फ़र फ़र फ़र फ़र फेहरा उठ, अकबर का अभिमान निशान! बढ़ चला पटक लेकर अपार, मद मस्त द्वीरध पेर मस्तमान!! कॉलहाल पेर कॉलहाल सुन, शस्त्रों की सुन झंकार प्रबल! मेवाड़ केसरी गर्ज उठा, सुन कर आही की लालकार प्रबल!! हैर एक्लिंग को माता नवा, लोहा लेने चल पड़ा वीर! चेतक का चंचल वेग देख, तट महा महा लजित समीर!! लड़ लड़ कर अखिल महिताम को, शॉड़िंत से भर देने वाली! तलवार वीर की तड़प उठी, आही कंठ क़ातर देने वाली!! राणा को भर आनंद, सूरज समान छम चमा उठा! बन माहाकाल का माहाकाल, भीषन भला दम दमा उठा!! भारी प्रताप की वज़ी तुरत, बज चले दमामे धमार धमार! धूम धूम रन के बाजे बजे, बज चले नगरे धमार धमार!! अपने पेन हथियार लिए पेनी पेनी तलवार लिए ! आए ख़ार, कुंत, क़तर लिए जन्नी सेवा का भर लिए !! कुछ घोड़े पेर कुछ हाथी पेर, कुछ योधा पैदल ही आए! कुछ ले बर्चे , कुछ ले भाले, कुछ शार से तर्कस भर ले आए!! रन यात्रा करते ही बोले, राणा की जेय राणा की जेय ! मेवाड़ सिपाही बोल उठे, शत बार महा-राणा की जेय!! हल्दी-घाटी की रन की जेय, राणा प्रताप के प्रन की जेय! जेय जेय भारत माता की , देश कन कन की जेय!!
राष्ट्रवीर राणा प्रताप भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अदम्य और अग्रणी ही नहीं अपितु मंत्रदाता भी थे | मुग़ल सल्तनत की गुलामी को चुनौती देने वाले वीर राणा जहाँ मुगलों के लिए काल पुरुष थे वहीँ अंग्रेजों की दासता-मुक्ति के लिए भारतीय जनमानस को प्रेरित कर जागृत करने वाले पथ प्रदर्शक भी थे | वे स्वतंत्रता ,स्वाभिमान,सहिष्णुता , पराक्रम और शौर्य के लहराते सरोवर थे | विदेशी सत्ताधीशों के विपत्ति बलाहकों के लिए दक्षिण का प्रभंजन थे | संकटों का सहर्ष स्वागत करने वाले , स्वधर्म ,स्वकर्तव्य का पालन करने वाले नर पुंगव थे | वे हमारे देश की आजादी के लिए मर मिटने वाले स्वतंत्रता के पुजारियों के प्रेरणास्त्रोत थे | उनके चित्र मात्र के दर्शन से ही मन में देश भक्ति की भावना का ज्वर उठने लगता है |
आज भी भारतीय इतिहास में एक गौरवशाली रणक्षेत्र् हल्दीघाटी का नाम आते ही मन में वीरोचित भाव उमडने - घुमडने लगते हैं। राणा प्रताप की उस युद्ध भूमि के स्मरण मात्र से मन में एक त्वरा सी उठती है एक हुक बरबस ही हृदय को मसोस डालती है | घोड़ों की टापें, हाथियों की चिंघाड़ व रणभेरियों की आवाजें मन को मथने सी लगती है |राणा प्रताप को अपनी पीठ पर बैठाकर दौड़ते ,हिनहिनाते चेतक की छवि मन-मस्तिष्क पर छा जाती है | चेतक एक पशु होकर भी राणा प्रताप जैसे योद्धा का सामीप्य पाकर आज अमर हो हल्दीघाटी में अपना स्मारक बनाने में कामयाब हो गया | हल्दी घाटी में जाने वाला हर पर्यटक चेतक के स्मारक पर दो आंसू जरुर बहाता है |
हल्दी घाटी युद्ध के बाद वे जंगलों में भटकते रहे ,घास की रोटियां खाई , पत्थरों का बिछोना बनाया ,कितने ही दुःख सहे पर मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वाह के लिए उन्होंने कभी कोई समझोता नहीं किया | यही वजह है कि वे आज जन-जन के हृदय में बसे है |
क्रांतिकारी कवि केसरी सिंह बारहट लिखते है - पग पग भम्या पहाड,धरा छांड राख्यो धरम | (ईंसू) महाराणा'र मेवाङ, हिरदे बसिया हिन्द रै ||1||
भयंकर मुसीबतों में दुःख सहते हुए मेवाड़ के महाराणा नंगे पैर पहाडों में घुमे ,घास की रोटियां खाई फिर भी उन्होंने हमेशा धर्म की रक्षा की | मातृभूमि के गौरव के लिए वे कभी कितनी ही बड़ी मुसीबत से विचलित नहीं हुए उन्होंने हमेशा मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है वे कभी किसी के आगे नहीं झुके | इसीलिए आज मेवाड़ के महाराणा हिंदुस्तान के जन जन के हृदय में बसे है |
दृढ प्रतिज्ञ एवं विलक्षण व्यक्तित्व के धनी महाराणा प्रताप का जन्म वि.स.१५९७ ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया ९ मई, १५४० को कुम्भलगढ में हुआ । पिता उदयसिंह की मृत्यु के उपरान्त राणा प्रताप का राज्याभिषेक 28 फरवरी, 1572 को गोगुन्दा में हुआ। विरासत में उन्हें मेवाड की प्रतिष्ठा और स्वाधीनता की रक्षा करने का भार ऐसे समय में मिला जबकि महत्वाकांक्षी सम्राट अकबर से शत्रुता के कारण समूचा मेवाड एक विचित्र् स्थिति में था | लेकिन उसके साथ ही राणा प्रताप को राणा लाखा, बापा रावल ,पितामह राणा सांगा की वीरत्व की विरासत भी मिली थी दूसरी और सुमेल गिरी युद्ध के महान वीर नाना अखेराज तथा हल्दीघाटी के रण में मुग़ल सेना का शमशेरों से स्वागत करने वाले उनके मामा मान सिंह का सानिध्य मिला था | इस प्रकार राणा प्रताप को पितृ और मातृ उभय कुलों की स्वतंत्र-परम्परा के संस्कार मिले थे | उन्होंने अपने यशस्वी पूर्वज महाराणा कुम्भा तथा सांगा की शौर्य कथाएँ तथा देश, धर्म और आन-बान ,मान-मर्यादा पर मरने का पाठ बाल्यकाल में ही पढ़ लिया था |
ऐसे संस्कार व शौर्य का ककहरा बाल्यकाल में पढने वाले राणा प्रताप स्वाधीनता के अपहरणकर्ता के आगे कैसे झुक सकते थे |देश-भक्ति,स्वतंत्रता ,स्वाभिमान,सहिष्णुता,पराक्रम और शौर्य के लहराते सरोवर व प्रेरणास्त्रोत राणा प्रताप को मेरा शत-शत
नमन | महाराणा प्रताप के बारे में एक गलत भ्रांती
Dhirendra Singh Rathore, Thikana Aasop
राजपूताने में यह जनश्रुति है कि एक दिन बादशाह ने बीकानेर के राजा रायमसिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज से, जो एक अच्छा कवि था, कहा कि राणा प्रताप अब हमें बादशाह कहने लग गए है और हमारी अधीनता स्वीकार करने पर उतारू हो गए हैं। इसी पर उसने निवेदन किया कि यह खबर झूठी है। बादशाह ने कहा कि तुम सही खबर मंगलवाकर बताओ। तब पृथ्वीराज ने नीचे लिखे हुए दो दोहे बनाकर महाराणा प्रताप के पास भेजे-
पातल जो पतसाह, बोलै मुख हूंतां बयण।
हिमर पछम दिस मांह, ऊगे राव उत॥
पटकूं मूंछां पाण, के पटकूं निज जन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक॥
आशय : महाराणा प्रतापसिंह यदि अकबर को अपने मुख से बादशाह कहें तो कश्यप का पुत्र (सूर्य) पश्चिम में उग जावे अर्थात जैसे सूर्य का पश्चिम में उदय होना सर्वथा असंभव है वैसे ही आप के मुख से बादशाह शब्द का निकलना भी असंभव है। हे दीवाण (महाराणा) मैं अपनी मूंछों पर ताव दूं अथवा अपनी तलवार का अपने ही शरीर पर प्रहार करूं, इन दो में से एक बात लिख दीजिये।
इन दोहों का उत्तर महाराणा ने इस प्रकार दिया-
तुरक कहासी मुख पतौ, इण तन सूं इकलिंग। ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग॥ खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछा पाण। पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ तिस केवाण॥ सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर स्वाद। भड़ पीथल जीतो भलां, बैण तुरब सूं बाद॥
आशय : भगवान एकलिंगजी इस शरीर से तो बादशाह को तुर्क ही कहलावेंगे और सूर्य का उदय जहां होता है वहां ही पूर्व दिशा में होता रहेगा। हे वीर राठौड़ पृथ्वीराज जब तक प्रतापसिंह की तलवार यवनों के सिर पर है तब तक आप अपनी मूछों पर खुशी से ताव देते रहिये। राणा सिर पर सांग का प्रहार सहेगा, क्योंकि अपने बराबरवाले का यश जहर के समान कटु होता है। हे वीर पृथ्वीराज तुर्क के साथ के वचनरूपी
विवाद में आप भलीभांति विजयी हों।
यह उत्तर पाकर पृथ्वीराज बहुत ही प्रसन्न हुआ और महाराणा की प्रशंसा में उसका उत्साह बढ़ाने के लिये उसने नीचे लिखा हुआ गीत लिख भेजा-
नर जेथ निमाणा निलजी नारी, अकबर गाहक बट अबट॥ चौहटे तिण जायर चीतोड़ो, बेचै किम रजपूत बट॥ रोजायतां तणें नवरोजे, जेथ मसाणा जणो जाण॥ हींदू नाथ दिलीचे हाटे, पतो न खरचै खत्रीपण॥ परपंच लाज दीठ नह व्यापण, खोटो लाभ अलाभ खरो॥ रज बेचबा न आवै राणो, हाटे मीर हमीर हरो॥ पेखे आपतणा पुरसोतम, रह अणियाल तणैं बळ राण॥ खत्र बेचिया अनेक खत्रियां, खत्रवट थिर राखी खुम्माण॥ जासी हाट बात रहसी जग, अकबर ठग जासी एकार॥ है राख्यो खत्री धरम राणै, सारा ले बरतो संसार॥
आशय : जहां पर मानहीन पुरूष और निर्लज स्त्रियां है और जैसा चाहिये वैसा ग्राहक अकबर है, उस बाजार में जाकर चित्तौड़ का स्वामी रजपूती को कैसे बचेगा। मुसलमानों के नौरोज में प्रत्येक व्यक्ति लूट गया, परन्तु हिन्दुओं का पति प्रतापसिंह दिल्ली के उस बाजार में अपने क्षत्रियपन को नहीं बेचता। हम्मीर का वंशधर अकबर की लाानक दृष्टि को अपने ऊपर नहीं पड़ने देता और पराधीनता के सुख के लाभ
को बुरा तथा अलाभ को अच्छा समझकर बादशाही दुकान पर राजपूती बेचने के लिए कदापि नहीं आता। अपने पुरुखाओं के उत्तमर् कत्तव्य देखते हुए आप ने भाले के बल से क्षत्रिय धर्म को अचल रक्खा, जबकि अन्य क्षत्रियों ने अपने क्षत्रियत्व को बेच डाला। अकबररूपी ठग भी एक दिन इस संसार से चला जाएगा और उसकी यह हाट भी उठ जाएगी, परन्तु संसार में यह बात अमर रह जायेगी कि क्षत्रियों के धर्म में रहकर
उस धर्म को केवल राणा प्रतापसिंह ने ही निभाया। अब पृथ्वी भर में सबको उचित है कि उस क्षत्रियत्व को अपने बर्ताव में लावें अर्थात राणा प्रतापसिंह की भांति आपत्ति भोग कर भी पुरुषार्थ से धर्म की रक्षा करें। राणा प्रताप के प्रन की जेय....
Dhirendra Singh Rathore, Thikana Aasop
धन्य हुआ रे राजस्थान,जो जन्म लिया यहां प्रताप ने।
Dhirendra Singh Rathore, Thikana Aasopलेख सिर्फ जानकारी देने के उद्देश्य से लिखा गया है !
Wednesday, June 16, 2010
लोक देवता बाबा रामदेव पीर
Dhirendra Singh Rathore
भारत की इस पवित्र धरती पर समय समय पर अनेक संतों,महात्माओं,वीरों व सत्पुरुषों ने जन्म लिया है | युग की आवश्कतानुसार उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के बल से, दुखों से त्रस्त मानवता को दुखों से मुक्ति दिला जीने की सही राह दिखाई | १५ वी. शताब्दी के आरम्भ में भारत में लुट खसोट,छुआछुत,हिंदू-मुस्लिम झगडों आदि के कारण स्थितिया बड़ी अराजक बनी हुई थी | ऐसे विकट समय में पश्चिमी राजस्थान के पोकरण नामक प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा नामक स्थान में तोमर वंशीय राजपूत और रुणिचा के शासक अजमाल जी के घर चेत्र शुक्ला पंचमी वि.स. १४०९ को बाबा रामदेव पीर अवतरित हुए जिन्होंने लोक में व्याप्त अत्याचार,वैर-द्वेष,छुआछुत का विरोध कर अछुतोद्वार का सफल आन्दोलन चलाया | हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव ने अपने अल्प जीवन के तेंतीस वर्षों में वह कार्य कर दिखाया जो सैकडो वर्षों में भी होना सम्भव नही था | सभी प्रकार के भेद-भाव को मिटाने एवं सभी वर्गों में एकता स्थापित करने की पुनीत प्रेरणा के कारण बाबा रामदेव जहाँ हिन्दुओ के देव है तो मुस्लिम भाईयों के लिए रामसा पीर | मुस्लिम भक्त बाबा को रामसा पीर कह कर पुकारते है वैसे भी राजस्थान के जनमानस में पॉँच पीरों की प्रतिष्ठा है जिनमे बाबा रामसा पीर का विशेष स्थान है |
पाबू हड्बू रामदे , माँगाळिया मेहा |
पांचू पीर पधारजौ , गोगाजी जेहा ||
बाबा रामदेव ने छुआछुत के खिलाफ कार्य कर सिर्फ़ दलितों का पक्ष ही नही लिया वरन उन्होंने दलित समाज की सेवा भी की | डाली बाई नामक एक दलित कन्या का उन्होंने अपने घर बहन-बेटी की तरह रख कर पालन-पोषण भी किया | यही कारण है आज बाबा के भक्तो में एक बहुत बड़ी संख्या दलित भक्तों की है | बाबा रामदेव पोकरण के शासक भी रहे लेकिन उन्होंने राजा बनकर नही अपितु जनसेवक बनकर गरीबों, दलितों, असाध्य रोगग्रस्त रोगियों व जरुरत मंदों की सेवा भी की | यही नही उन्होंने पोकरण की जनता को भैरव राक्षक के आतंक से भी मुक्त कराया | प्रसिद्ध इतिहासकार मुंहता नैनसी ने भी अपने ग्रन्थ " मारवाड़ रा परगना री विगत " में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखा है - भैरव राक्षस ने पोकरण नगर आतंक से सुना कर दिया था लेकिन बाबा रामदेव के अद्भुत एवं दिव्य व्यक्तित्व के कारण राक्षस ने उनके आगे आत्म-समर्पण कर दिया था और बाद में उनकी आज्ञा अनुसार वह मारवाड़ छोड़ कर चला गया | बाबा रामदेव ने अपने जीवन काल के दौरान और समाधी लेने के बाद कई चमत्कार दिखाए जिन्हें लोक भाषा में परचा देना कहते है | इतिहास व लोक कथाओं में बाबा द्वारा दिए ढेर सारे परचों का जिक्र है | जनश्रुति के अनुसार मक्का के मौलवियों ने अपने पूज्य पीरों को जब बाबा की ख्याति और उनके अलोकिक चमत्कार के बारे में बताया तो वे पीर बाबा की शक्ति को परखने के लिए मक्का से रुणिचा आए | बाबा के घर जब पांचो पीर खाना खाने बैठे तब उन्होंने बाबा से कहा की वे अपने खाने के बर्तन (सीपियाँ) मक्का ही छोड़ आए है और उनका प्रण है कि वे खाना उन सीपियों में खाते है तब बाबा रामदेव ने उन्हें विनयपूर्वक कहा कि उनका भी प्रण है कि घर आए अतिथि को बिना भोजन कराये नही जाने देते और इसके साथ ही बाबा ने अलौकिक चमत्कार दिखाया जो सीपी जिस पीर कि थी वो उसके सम्मुख रखी मिली | इस चमत्कार (परचा) से वे पीर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बाबा को पीरों का पीर स्वीकार किया | आख़िर जन-जन की सेवा के साथ सभी को एकता का पाठ पढाते बाबा रामदेव ने भाद्रपद शुक्ला एकादशी वि.स.१४४२ को जीवित समाधी ले ली | आज भी बाबा रामदेव के भक्त दूर दूर से रुणिचा उनके दर्शनार्थ और अराधना करने आते है हर साल लगने मेले में तो लाखों की तादात में जुटी उनके भक्तो की भीड़ से उनकी महत्ता व उनके प्रति जन समुदाय की श्रद्धा का आकलन आसानी से किया जा सकता है
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राजस्थान के लोक देवता श्री पाबूजी राठौङ
राजस्थान के लोक देवता श्री पाबूजी राठौङ
गुजरात राज्य मे एक स्थान है अंजार वैसे तो यह स्थान अपने चाकू,तलवार,कटार आदि बनाने के लिये प्रसिद्ध है । इस स्थान का जिक्र मै यहाँ इस लिये कर रहा हूं क्यों कि देवल चारणी यही कि वासी थी । उसके पास एक काले रंग की घोडी थी । जिसका नाम केसर कालमी था । उस घोडी की प्रसिद्धि दूर दूर तक फैली हुई थी। उस घोडी को को जायल (नागौर) के जिन्द राव खींची ने डोरा बांधा था । और कहा कि यह घोडी मै लुंगा । यदि मेरी इच्छा के विरूद्ध तुम ने यह घोडी किसी और को दे दी तो मै तुम्हारी सभी गायों को ले जाउगां ।
एक रात श्री पाबूजी महाराज को स्वप्न आता है और उन्हें यह घोडी(केशर कालमी) दिखायी देती है । सुबह वो इसे लाने का विचार करते है । और अपने खास सरदार चान्दा जी, डेमा जी के साथ अंजार के लिये कूच करते है । देवल चारणी उनकी अच्छी आव भगत करती है और आने का प्रयोजन पूछती है । श्री पाबूजी महाराज देवल से केशर कालमी को मांगते है । देवल उन्हें मना कर देती है और उन्हें बताती है कि इस घोडी को जिन्द राव खींची ने डोरा बांधा है और मेरी गायो के अपहरण कि धमकी भी दी हुइ है । यह सुनकर श्री पाबूजी महाराज देवल चारणी को वचन देते है कि तुम्हारी गायों कि रक्षा कि जिम्मेदारी आज से मेरी है । जब भी तुम विपत्ति मे मुझे पुकारोगी अपने पास ही पाओगी । उनकी बात सुनकर के देवल अपनी घोडी उन्हें दे देती है ।श्री पाबूजी महाराज के दो बहिन होती है पेमल बाइ व सोनल बाइ । जिन्द राव खींची का विवाह श्री पाबूजी महाराज कि बहिन पेमल बाइ के साथ होता है । सोनल बाइ का विवाह सिरोही के महाराज सूरा देवडा के साथ होता है । जिन्द राव
शादी के समय दहेज मे केशर कालमी कि मांग करता है । जिसे श्री पाबूजी महाराज के बडे भाइ बूढा जी द्वारा मान लिया जाता है लेकिन श्री पाबूजी महाराज घोडी देने से इंकार कर देते है इस बात पर श्री पाबूजी महाराज का अपने बड़े भाइ के साथ मनमुटाव हो जाता है ।
अमर कोट के सोढा सरदार सूरज मल जी कि पुत्री फूलवन्ती बाई का रिश्ता श्री पाबूजी महाराज के लिये आता है । जिसे श्री पाबूजी महाराज सहर्ष स्वीकार कर लेते है । तय समय पर श्री पाबूजी महाराज बारात लेकर अमरकोट के लिये प्रस्थान करते है । कहते है कि पहले ऊंट के पांच पैर होते थे इस वजह से बरात धीमे चल रही थी । जिसे देख कर श्री पाबूजी महाराज ने ऊंट के बीच वाले पैर के नीचे हथेली रख कर उसे उपर पेट कि तरफ धकेल दिया जिससे वह पेट मे घुस गया । आज भी ऊंट के पेट पैर पांचवे पैर का निशान है ।
इधर देवल चारणी कि गायो को जिन्दा राव खींची ले जाता है | देवल चारणी काफी मिन्नते करती है लेकिन वह नही मानता है , और गायो को जबरन ले जाता है | देवल चारणी एक चिडिया का रूप धारण करके अमर कोट पहुच जाती है | अमर कोट में उस वक्त श्री पाबूजी महाराज की शादी में फेरो की रस्म चल रही होती है तीन फेरे ही लिए थे की चिडिया के वेश में देवल चारणी ने वहा रोते हुए आप बीती सुनाई | उसकी आवाज सुनकर पाबूजी का खून खोल उठा और वे रस्म को बीच में ही छोड़ कर युद्ध के लिए प्रस्थान करते है | (कहते है उस दिन से राजपूतो में आधे फेरो का ही रिवाज कल पड़ा )
पाबूजी महाराज अपने जीजा जिन्दराव खिंची को ललकारते है | वहा पर भयानक युद्ध होता है | पाबूजी महाराज अपने युद्ध कोशल से जिन्दराव को परस्त कर देते है लेकिन बहिन के सुहाग को सुरक्षित रखने के लिहाज से जिन्दराव को जिन्दा छोड़ देते है |सभी गायो को लाकर वापस देवल चारणी को सोप देते है और अपनी गायो को देख लेने को कहते है | देवल चारणी कहती है की एक बछडा कम है | पाबूजी महाराज वापस जाकर उस बछड़े को भी लाकर दे देते है |
रात को अपने गाँव गुन्जवा में विश्राम करते है तभी रात को जिन्दराव खींची अपने मामा फूल दे भाटी के साथ मिल कर सोते हुओं पर हमला करता है | जिन्दराव के साथ पाबूजी महाराज का युद्ध चल रहा होता है और उनके पीछे से फूल दे भाटी वार करता है | और इस प्रकार श्री पाबूजी महाराज गायो की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे देते है | पाबूजी महाराज की रानी फूलवंती जी , व बूढा जी की रानी गहलोतनी जी व अन्य राजपूत सरदारों की राणियां अपने अपने पति के साथ सती हो जाती है | कहते है की बूढाजी की रानी गहलोतनी जी गर्भ से होती है | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गर्भवती स्त्री सती नहीं हो सकती है | इस लिए वो अपना पेट कटार से काट कर पेट से बच्चे को निकाल कर अपनी सास को सोंप कर कहती है की यह बड़ा होकर अपने पिता व चाचा का बदला जिन्दराव से जरूर लेगा | यह कह कर वह सती हो जाती है | कालान्तर में वह बच्चा झरडा जी ( रूपनाथ जो की गुरू गोरखनाथ जी के चेले होते है ) के रूप में प्रसिद्ध होते है तथा अपनी भुवा की मदद से अपने फूफा को मार कर बदला लेते है और जंगल में तपस्या के लिए निकल जाते है |
पाठक मित्रो को बोरियत से बचाने के लिये कथा को सीमित कर दिया गया है ।
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